लक्षित विधान के मामलों में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका

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लक्षित विधान के मामलों में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका

GS-2: भारतीय शासन

(IAS/UPPCS)

22/05/2024

स्रोत: TH

प्रसंग:

वर्तमान समय में सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक समीक्षा की भूमिका संदेह के घेरे में है क्योंकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय को नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (सीएए) और इसके साथ जुड़े नियमों जैसे कानूनों की संवैधानिकता के संबंध में गंभीर सवालों का सामना करना पड़ रहा है। इन नियमों की अस्पष्टता से चिंताएँ उत्पन्न हुई हैं, विशेष रूप से उन आवेदकों के भाग्य के बारे में जिनके नागरिकता के अनुरोधों को अस्वीकार कर दिया गया है, जिससे संभावित हिरासत की आशंका पैदा हो गई है। इसके अतिरिक्त, विदेशी आवेदकों के लिए अपनी मूल नागरिकता छोड़े बिना दोहरी नागरिकता के बारे में चिंताएं उठाई गई हैं, जो मूल अधिनियम की भावना के विरोधाभास का सुझाव देती हैं।

लक्षित विधान क्या है?

  • भारतीय संसद में लक्षित विधान का अर्थ विशेष रूप से उन विधेयकों और कानूनों से है जो किसी विशेष उद्देश्य या लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए बनाए जाते हैं। ये विधेयक किसी विशेष मुद्दे को संबोधित करने, सुधार लाने या समाज के किसी विशेष वर्ग की जरूरतों को पूरा करने के उद्देश्य से पेश किए जाते हैं।
  • लक्षित विधान सरकार द्वारा राजनीतिक लाभ के लिए भी बनाए जाते हैं, इससे न केवल संवैधानिक लोकतंत्र की उपेक्षा होती है बल्कि संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन भी होता है।
  • लक्षित विधान किसी विशेष समुदाय को लाभ पहुंचाने या विद्वेष की भावना से प्रेरित हो कर बनाए जा सकते हैं। लक्षित विधान न्यायिक समीक्षा के अधीन होते हैं ताकि इनकी  संवैधानिक व्याख्या की जा सके।
  • वर्तमान में सीएए और इसके नियम लक्षित विधान के स्पष्ट उदाहरण हैं, जहां विधायी दुर्भावना स्पष्ट है। यह कानून मुसलमानों को धर्म के आधार पर नागरिकता प्रक्रिया से बाहर करके भेदभाव करता है।
  • इसी तरह, मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम (2019) ने तत्काल तीन तलाक को अपराध घोषित कर दिया, जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने शायरा बानो (2017) में इसे अमान्य करार दिया था। मुस्लिम समुदाय को लक्षित यह कानून अक्सर मुस्लिम महिलाओं की रक्षा करने में विफल रहा और इसके बजाय विभाजनकारी एजेंडे को बढ़ावा दिया। कुछ राज्यों में धर्मांतरण विरोधी कानून लक्षित कानून का और भी उदाहरण हैं।

लक्षित विधान के प्रभाव:

  • विशिष्ट समस्या समाधान: लक्षित विधान किसी विशिष्ट समस्या या मुद्दे को हल करने के लिए होता है, जैसे कि आर्थिक सुधार, सामाजिक न्याय, स्वास्थ्य, शिक्षा, या सुरक्षा। इससे संबंधित समस्या का त्वरित और प्रभावी समाधान प्राप्त होता है।
  • सामाजिक न्याय: ऐसे विधानों का उद्देश्य समाज के कमजोर और वंचित वर्गों के हितों की रक्षा करना हो सकता है। उदाहरण के लिए, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, महिलाओं, और अल्पसंख्यकों के लिए विशेष कानून बनाना।
  • आर्थिक सुधार: लक्षित विधानों के माध्यम से आर्थिक सुधार और विकास के लिए कदम उठाए जाते हैं। जैसे कि वस्तु एवं सेवा कर (GST) कानून, जो देश की कर प्रणाली में सुधार लाने के लिए बनाया गया।
  • सुरक्षा और शांति: राष्ट्रीय सुरक्षा और सार्वजनिक शांति बनाए रखने के लिए भी लक्षित विधान बनाए जाते हैं। जैसे कि आतंकवाद विरोधी कानून, जो देश की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए हैं।
  • पर्यावरण संरक्षण: पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास को बढ़ावा देने के लिए भी लक्षित विधान बनाए जाते हैं। जैसे कि पर्यावरण संरक्षण अधिनियम।

लक्षित विधानों के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के महत्वपूर्ण निर्णय:

भारतीय संसद में लक्षित विधानों के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के कई महत्वपूर्ण निर्णय हुए हैं, जो विधानों की संवैधानिकता और उनके प्रभावों पर आधारित हैं। यहाँ कुछ प्रमुख निर्णयों का विवरण दिया गया है:

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973)

  • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के मूल ढांचे (Basic Structure Doctrine) की अवधारणा को स्थापित किया। यह निर्णय महत्वपूर्ण था क्योंकि इसमें न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन वह संविधान के मूल ढांचे को नष्ट नहीं कर सकती। इस निर्णय का प्रभाव यह हुआ कि लक्षित विधानों को संविधान के मौलिक सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए।

मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980)

  • इस मामले में न्यायालय ने केशवानंद भारती मामले के निर्णय की पुष्टि की और यह घोषित किया कि संविधान के मौलिक ढांचे को बनाए रखना आवश्यक है। इसमें न्यायालय ने यह भी कहा कि संसद की विधायी शक्तियों पर न्यायिक समीक्षा संभव है। इसका मतलब यह है कि कोई भी लक्षित विधान, यदि संविधान के मौलिक ढांचे के खिलाफ है, तो उसे असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है।

मानवाधिकार आयोग (NHRC) बनाम अरुणाचल प्रदेश राज्य (1996)

  • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने मानवाधिकारों की रक्षा के संदर्भ में महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश दिए। इसमें न्यायालय ने स्पष्ट किया कि राज्य को अपने नागरिकों के मानवाधिकारों की सुरक्षा करनी चाहिए और लक्षित विधान के माध्यम से इसे सुनिश्चित करना चाहिए।

नवतेज सिंह जोहर बनाम भारत संघ (2018)

  • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को आंशिक रूप से निरस्त किया, जो समलैंगिकता को अपराध मानता था। यह निर्णय मानवाधिकारों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संदर्भ में महत्वपूर्ण था, और इससे यह सुनिश्चित हुआ कि लक्षित विधान नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकते।

इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (1992)

  • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षण को संवैधानिक घोषित किया। इस निर्णय में न्यायालय ने यह भी कहा कि आरक्षण 50% से अधिक नहीं हो सकता, ताकि समाज के सभी वर्गों के साथ न्याय हो सके। यह निर्णय लक्षित विधान के संदर्भ में महत्वपूर्ण था क्योंकि इससे आरक्षण नीति के संतुलन को बनाए रखने के दिशा-निर्देश प्राप्त हुए।

आधार (UIDAI) मामले में निर्णय (2018)

  • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आधार योजना की संवैधानिकता को बरकरार रखा, लेकिन इसके उपयोग को सीमित कर दिया। इसमें न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि आधार का उपयोग केवल सब्सिडी, लाभ, और सेवाओं के लिए ही किया जा सकता है और निजी कंपनियों द्वारा इसका उपयोग प्रतिबंधित होगा। यह निर्णय लक्षित विधान के प्रभाव और उनके उचित उपयोग के संदर्भ में महत्वपूर्ण था।

न्यायिक समीक्षा के बारे में:

  • न्यायिक समीक्षा से अभिप्राय सरकार की विधायी, कार्यकारी और प्रशासनिक शाखाओं के कार्यों की जांच करने की अदालतों की शक्ति से है ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि वे संविधान के अनुरूप हैं या नहीं।
  • इसका प्राथमिक उद्देश्य कानून के शासन को कायम रखना और असंवैधानिक कानूनों या कार्यों को खत्म करके संविधान की रक्षा करना है।
  • अनुच्छेद 372(1) संविधान-पूर्व विधान की न्यायिक समीक्षा स्थापित करता है।
  • अनुच्छेद 13 घोषित करता है कि कोई भी कानून जो मौलिक अधिकारों के किसी भी प्रावधान का उल्लंघन करता है वह अमान्य होगा।

आगे की राह:

  • न्यायिक समीक्षा को मजबूत करें: चुनावी प्रक्रियाओं में हेरफेर करने या संवैधानिक लोकतंत्र को कमजोर करने वाली विधायी कार्रवाइयों को प्रभावी ढंग से रोकने के लिए न्यायिक समीक्षा को मजबूत किया जाना चाहिए ।
  • न्यायालयों को अपनी बहुसंख्यकवाद विरोधी भूमिका निभाने के लिए महत्वपूर्ण समय में अधिक मुखर दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।
  • अत्यावश्यक मामलों को प्राथमिकता दें: अपरिवर्तनीय परिणामों को रोकने के लिए असंवैधानिक कानूनों को चुनौती देने वाले अत्यावश्यक मामलों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। ऐसे मामलों पर निर्णय लेने में देरी मुकदमेबाजी को लगभग एक नियति बना सकती है, जैसा कि कश्मीर की विशेष स्थिति को कमजोर करने में देखा गया है ।
  • निर्णयों का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करें: न्यायालयों को विधायिका को प्रेरित कानून के माध्यम से अपने निर्णयों को रद्द करने से रोककर उनके निर्णयों का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करना चाहिए।
  • न्यायिक बुनियादी ढांचे को बढ़ाएं: न्यायिक बुनियादी ढांचे में सुधार, जैसे न्यायाधीशों और अदालतों की संख्या में वृद्धि, अत्यावश्यक मामलों की सुनवाई में तेजी लाने में मदद कर सकती है। समय पर न्याय दिलाने के लिए पर्याप्त संसाधन और कुशल केस प्रबंधन प्रणाली महत्वपूर्ण हैं।

निष्कर्ष:

सर्वोच्च न्यायालय के ये निर्णय लक्षित विधानों की संवैधानिकता, मानवाधिकारों की रक्षा, और विधायिका की शक्तियों के संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये निर्णय यह सुनिश्चित करते हैं कि भारतीय संसद द्वारा पारित कोई भी लक्षित विधान संविधान के मौलिक सिद्धांतों और नागरिकों के अधिकारों के अनुरूप हो।

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मुख्य परीक्षा प्रश्न:

लक्षित विधान क्या है? क्या सुप्रीम कोर्ट न्यायिक निर्णय द्वारा शासन के लोकलुभावन विधानों द्वारा उत्पन्न समसामयिक चुनौतियों का समाधान कर सकता है? विवेचना कीजिए।