Relevance of Reservation “more population, more rights”

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जितनी आबादी, उतना हकआरक्षण की प्रासंगिकता

GS-1: भारतीय समाज

(IAS/UPPCS)

18/05/2024

स्रोत: TH

सन्दर्भ:

वर्तमान में लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान नौकरियों में आरक्षण से संबंधित नारा 'जितनी आबादी, उतना हक' चर्चा में है। क्या नौकरियों में आरक्षण जनसंख्या के अनुपात में ही होना चाहिए?

  • आरक्षण का मुद्दा भारत में हमेशा से ही विवादित और चर्चित रहा है। “जितनी आबादी, उतना हक” का नारा इस संदर्भ में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सामाजिक न्याय और समानता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जाता है। आइए इस मुद्दे की प्रासंगिकता और इसके विभिन्न पहलुओं पर विचार करें।

आरक्षण

  • आरक्षण (Reservation) से अभिप्राय अपने  पद एवं स्थान सुरक्षित करने से है। आरक्षण का संबंध सामान्यतया स्थानीय, लोकसभा या विधानसभा चुनाव या फिर सरकारी विभाग में नौकरी से होता है।
  • आरक्षण प्रणाली का उद्देश्य समाज के कमजोर और पिछड़े वर्गों को शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में समान अवसर प्रदान करना है।

पृष्ठभूमि

  • भारतीय समाज में जाति आधारित भेदभाव और असमानता लंबे समय से व्याप्त रही है। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान और स्वतंत्रता के बाद भी, कई सामाजिक सुधारकों ने जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई। स्वतंत्रता से पूर्व आरक्षण की मांग सबसे पहले विख्यात समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले द्वारा हंटर आयोग (1882 में गठित) के समक्ष रखी गयी थी।
  • स्वतंत्रता के बाद डॉ. भीमराव अंबेडकर ने संविधान निर्माण के समय दलितों और पिछड़े वर्गों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए आरक्षण की नीति का प्रस्ताव रखा था। यह नीति शिक्षा और सरकारी नौकरियों में वंचित वर्गों को प्रतिनिधित्व दिलाने के उद्देश्य से बनाई गई थी।

 “जितनी आबादी, उतना हक” का सिद्धांत

  • “जितनी आबादी, उतना हक” का सिद्धांत यह कहता है कि जिस समुदाय की जितनी जनसंख्या है, उसे उसी अनुपात में आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए। यह सिद्धांत मुख्य रूप से इस विचार पर आधारित है कि समाज के सभी वर्गों को उनकी जनसंख्या के आधार पर समान प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए, जिससे सामाजिक न्याय और समता स्थापित हो सके।

संवैधानिक प्रावधान:

  • आरक्षण प्रणाली का आधार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में निहित है, जो कुछ श्रेणियों, विशेष रूप से अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए विशेष प्रावधान प्रदान करता है।
  • हालाँकि, संविधान निजी क्षेत्र में आरक्षण को स्पष्ट रूप से अनिवार्य नहीं करता है। निजी क्षेत्र को परंपरागत रूप से योग्यता और बाजार की गतिशीलता का क्षेत्र माना जाता है।
  • अनुच्छेद 19(1)(G) और 14, जो क्रमशः किसी भी पेशे का अभ्यास करने के अधिकार और कानून के समक्ष समानता की गारंटी देते हैं, निजी क्षेत्र में आरक्षण पर चर्चा करते समय भी लागू होते हैं।

प्रासंगिकता और महत्व:

  • समानता और न्याय: यह सिद्धांत समाज के सभी वर्गों को उनकी जनसंख्या के अनुसार समान अवसर और प्रतिनिधित्व प्रदान करता है। इससे समाज में समानता और न्याय की भावना को बढ़ावा मिलता है।
  • समावेशिता: इस सिद्धांत से समाज के सभी वर्गों को शासन और नीति-निर्माण में समान भागीदारी मिलती है, जिससे समावेशी विकास हो सकता है।
  • सामाजिक स्थिरता: समाज में विभिन्न वर्गों के बीच सामंजस्य और स्थिरता बनाए रखने में यह सिद्धांत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इससे समाज में व्याप्त असमानता और अन्याय को कम किया जा सकता है।

चुनौतियाँ और विवाद:

  • आरक्षण की सीमा: कुछ वर्गों का तर्क है कि आरक्षण की सीमा 50% से अधिक नहीं होनी चाहिए, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी केस (1992) में निर्धारित किया था। हालांकि, कुछ राज्य इस सीमा को पार कर चुके हैं, जिससे कानूनी और संवैधानिक विवाद उत्पन्न होते हैं।
  • योग्यता और प्रतिस्पर्धा: आरक्षण का विरोध करने वाले तर्क देते हैं कि यह योग्यता और प्रतिस्पर्धा के सिद्धांतों के खिलाफ है। उनका मानना है कि आरक्षण से योग्य उम्मीदवारों के अवसर सीमित हो जाते हैं।
  • सामाजिक विभाजन: आरक्षण से समाज में विभाजन की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है। कुछ वर्गों का मानना है कि इससे समाज में अलगाव और विद्वेष बढ़ सकता है।
  • संविधान में कोई उल्लेख नहीं: भारतीय संविधान में जितनी आबादी, उतना हक की कोई अवधारणा नहीं है। यह अवधारणा स्पष्टतः असंवैधानिक है। यह संविधान की मूल भावना के विपरीत है। भारत एक गणतंत्र है जो नागरिकों के बीच समानता को मान्यता देता है। संविधान में जाति को एक इकाई के रूप में मान्यता नहीं दी गई है। यदि इसे मान्यता दी गई है, तो यह केवल सकारात्मक कार्रवाई के लिए कुछ नीतियों की सीमा तक है।

आगे की राह:

  • आजीविका सृजन:  भारतीय समाज में वंचितों को आर्थिक और सामाजिक न्याय दिलाने के लिए सामाजिक-आर्थिक पिरामिड के निचले स्तर पर धन और आजीविका सृजन में अत्यधिक सुधार करने की आवश्यकता है।
  • विशेष नीति की आवश्यकता: भारत में एक ऐसी नीति बनानी होगी जो जाति और धर्म पर ध्यान दिए बिना सभी के लिए आर्थिक और शैक्षिक सशक्तिकरण के लिए हो, और उस समूह के लिए एक अतिरिक्त नीति हो जिसके साथ भेदभाव किया जाता है।
  • जातिगत जनगणना की आवश्यकता: जातिगत जनगणना के आधार पर वंचितों को विशेष लाभ दिया जाना चाहिए ताकि उनका आवश्यक तौर पर उत्थान किया जा सके। जाति जनगणना से पता चलेगा कि किस जाति या उपजाति के कितने लोग हैं और उनका सापेक्ष पिछड़ापन या प्रगति क्या है। समानता की दिशा में आगे बढ़ने के लिए हमें किन कार्यों की आवश्यकता है।

निष्कर्ष:

आरक्षण की नीति एक जटिल और विवादास्पद मुद्दा है। "जितनी आबादी, उतना हक" का नारा समाज में समानता और न्याय की स्थापना के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन इसके क्रियान्वयन में सावधानी और संतुलन की आवश्यकता है। यह जरूरी है कि आरक्षण नीति को समय-समय पर समीक्षा किया जाए और आवश्यक सुधार किए जाएं ताकि यह सभी के हित में काम कर सके और समाज के समग्र विकास में योगदान दे सके। सामाजिक न्याय और समानता की दिशा में उठाया गया हर कदम हमारे समाज को और मजबूत और प्रगतिशील बना सकता है।

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मुख्य परीक्षा प्रश्न:

भारत मेंजितनी आबादी, उतना हकआरक्षण का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए